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डेढ़ आंख से लिखी कहानियां कहानी-संग्रह वरिष्ठ लेखक ‘तेजवीर सिंह’ जी की जीवन दृष्टि, अनुभव और संवेदना का समृद्ध दस्तावेज है। यह संग्रह केवल कहानियों का संकलन नहीं, बल्कि एक संजीदा जीवन यात्रा की अभिव्यक्ति है। सराहनीय बात यह है कि लेखक ने लगभग ‘पचास वर्षों के अंतराल’ के बाद पुनः कलम उठाई - जो किसी भी रचनाकार के लिए साहसिक और प्रेरणादायक है।


डेढ़ आंख से लिखी कहानियां - तेजवीर सिंह | कहानी संग्रह समीक्षा
डेढ़ आंख से लिखी कहानियां - तेजवीर सिंह | कहानी संग्रह समीक्षा

इस संग्रह के प्रकाशन के बाद लेखक की चार-पांच पुस्तकें और आ चुकी हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि - ‘उम्र लेखन के मार्ग में बाधा नहीं, बल्कि अनुभव का खजाना हो सकती है।’ तेजवीर सिंह जी की कहानियों में जीवन की जीवंतता, सरलता, और गहराई स्पष्ट दिखाई देती है।


यह संग्रह न केवल उन पाठकों को ऊर्जा देगा जो जीवन की ढलान पर हैं, बल्कि युवाओं को भी प्रेरणा देगा कि जीवन को सकारात्मकता और सक्रियता के साथ कैसे जिया जा सकता है।

इस संग्रह की हर कहानी अच्छी है, लेकिन मुझे जो विशेष पसंद आई उसे आप सबके साथ साझा कर रही हूं -


पेंशन - इस संग्रह की पहली कहानी रिटायरमेंट के बाद की मनःस्थिति, सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक संवाद और जीवन की उतरार्ध सूक्ष्म झलक प्रस्तुत करती है। कहानी का यह अंश विशेष रूप से हृदयस्पर्शी है -

“तुम हर समय पेंशन की रट क्यों लगाए रहते हो? क्या तुम्हारा काम पंद्रह सौ रुपये से ही चलेगा? मैंने खीझकर पूछा - तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया - बस मुस्करा दिए। यही उनकी खास अदा थी।”

यह मुस्कान एक पूरी पीढ़ी की स्वीकार्यता, धैर्य और गहराई का प्रतीक बन जाती है।


पीठ - यह कहानी समाज में इज्जत पाने और नौकरी बचाने की चिंता में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहरी टिप्पणी करती है। यह पाठक को आत्ममंथन के लिए विवश करती है - कि क्या हम खुद की नजरों में भी उतने साफ हैं जितना समाज के सामने दिखना चाहते हैं।


इस संग्रह की कहानियां अत्यंत सहज, पारदर्शी और आत्मीय भाषा में लिखी गई हैं। इनकी कहानियां - परिवार, समाज, नौकरी, रिश्तों और उम्र के बदलते आयामों को एक आईने की तरह प्रस्तुत करती हैं। हर कहानी कहीं न कहीं से पाठक को खुद से जोड़ लेती है।


यह पुस्तक उन सभी पाठकों के लिए पठनीय है, जो जीवन के हर मोड़ पर कुछ नया सीखना और समझना चाहते हैं।


-शुभकामना सहित

 
 
 
केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं"
केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं"

किसी भी कवि की सबसे बड़ी उपलब्धि यह होती है कि उसके शब्द केवल पढ़े न जाएं, बल्कि भीतर तक महसूस किए जाएं। केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं" इसी कसौटी पर खरा उतरता है। उनकी कविताओं में गहन संवेदना, गूढ़ अभिव्यक्ति और सामाजिक यथार्थ का कलात्मक चित्रण निश्चय ही उल्लेखनीय उपलब्धि है।


कवि की कविताएं पाठक को केवल छूती नहीं बल्कि बांधकर रखती हैं। वे हमें अपने संसार में खींच ले जाती हैं, जहां भावनाएं, पीड़ा संघर्ष और सपनों की उजली रेखाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। इस संग्रह का शीर्षक अपने आप में सार्थक है।


हर कविता उस सपने की बुनावट है जो व्यक्तिगत से सामाजिक और अंततः मानवीय संवेदनाओं तक फैलती जाती है।


इस काव्य संग्रह की कविताओं की कुछ पंक्तियां आपसे साझा कर रही हूं -


रोज बुनता हूं सपने

अपने ही

किसी सुखद भविष्य के लिए नहीं,

बुहार कर

कंकड़ों को

देने के लिए

कुछ स्वच्छ, सीधा, सपाट राजपथ

अपनी जिम्मेदारियों को।


लड़की

आज भी

नहीं बोल पा रही है

ठीक से

वह

आज भी

धरती बनकर

बिछती जा रही है

पांवों के नीचे


सत्य को लकवा नहीं मारा

है दलित

दमित

समय के पाषाण खंड से

और उन्मत है असत्य

कर रहा अट्टाहास

मद में विजय के

घमंड से।


मेरी कविता

सप्तपदी में साथ

प्रियतमा का

मेरी कविता

धरती का धैर्ययुक्त

भाव क्षमा का


कवि अपने सपनों को केवल व्यक्तिगत आकांक्षाओं तक सीमित नहीं रखते। 'रोज बुनता हूं सपने' कविता में स्पष्ट करते हैं कि सपने किसी सुखद भविष्य के लिए मात्र नहीं हैं, बल्कि जिम्मेदारियों को निभाने और समाज के लिए एक समतल स्वच्छ मार्ग तैयार करने का प्रयास है।


'मैं रोज बुनता हूं सपने' केवल एक काव्य संग्रह नहीं बल्कि हमारे समय की नब्ज को टटोलने वाला साहित्यिक दस्तावेज है। इसमें स्त्री की पीड़ा, दलित का संघर्ष समाज की विडंबना, और भविष्य की उम्मीद सबकुछ है।

युवा कवि केशव मोहन पाण्डे की यह कृति हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक सशक्त हस्तक्षेप के रूप में दर्ज की जानी चाहिए।


कवि की भाषा सरल है लेकिन प्रभावशाली बिंब और प्रतीकों का प्रयोग किया है। वे सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं यही सादगी उनकी कविताओं को गहराई और असरदार बनाती है।


कवि केशव मोहन पाण्डे जी को शुभकामनाएं, अपने कर्मपथ पर निरंतर अग्रसर रहें।


इस उत्कृष्ट काव्य संग्रह को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें और पुस्तक खरीदें।

 
 
 
  • लेखक की तस्वीर: अर्चना श्रीवास्तव
    अर्चना श्रीवास्तव
  • 17 अग॰
  • 1 मिनट पठन
जीवन के प्रश्न पर कविता - contemplative artistic image showing person in thoughtful pose against purple twilight sky with philosophical question marks floating in atmosphere
जीवन के प्रश्न पर कविता - contemplative artistic image showing person in thoughtful pose against purple twilight sky with philosophical question marks floating in atmosphere

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या इसका उद्देश्य बतलाना है?

क्या व्यर्थ ही बीते जीवन,

या कुछ अमिट निशान छोड़ जाना है?

क्यों घिरी हूँ अवसाद में?

क्या यूँ ही खो जाना है?

यह बसंत है या भ्रम पतझड़ का?

क्या सच में मुरझाना है?

क्यों यह जीवन मिला मुझे,

क्या इसका अर्थ समझाना है?

संघर्षों का राह चुनूँ क्या,

या यूँ ही उलझी रहूँ अँधेरों में?

क्या ठहर जाना ही मंज़िल है,

या चलना है सपनों के सवेरों में?

दुनिया कहती है, "ठहरो ज़रा,

किस जल्दी में हो यूँ भागते?"

जो देखा था, कभी आँखों से जागते,

उन आँखों के अधूरे सपने

जो वक़्त की मार से बुझ गए,

क्या अब मैं उन्हें जी पाऊँ,

जो उनके होठों पर रुक गए?

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या रुक जाना ही मंज़िल है?

चाह नहीं इस जीवन को,

कोई इसकी तारीफ़ करे।

उन सपनों को पूरा करने में,

थोड़ा तो सहयोग करे।

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या इसका उद्देश्य बतलाना है?

 
 
 
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