बलिया बिसरत नाही - समीक्षा
- अर्चना श्रीवास्तव
- 3 फ़र॰
- 3 मिनट पठन

किताब - बलिया बिसरत नाही
विधा - संस्मरण
लेखक - श्री रामबदन राय हमारी यादें भले ही अधूरी रहेगी
मगर हमारी दोस्ती पूरी रहेगी !!!
दोस्त भी जीवन का अहम हिस्सा होते है, इनके बिना जीवन अधुरा सा लगता है, यह वो बंधन है जो हर बंधन से अनूठा लगता है ।
आदरणीय 'श्री रामबदन राय' जी का पुस्तक 'बलिया बिसरत नाही' प्राप्त हुआ, पढ़कर आंखे नम हो आयी, मेरे पिता 'श्री नरेंद्र शास्त्री' के जीवन से जुड़ी साहित्य, घटनाक्रम और उनसे पहली मुलाकात का मजेदार वाक्या, उनकी अजीबो-गरीब दोस्ती जिसमें अपने दोस्त से बात करने के लिए कोई सीमा-रेखा या शब्दो का बंधन नही था, इनके बीच था तो ह्रदय से जुड़ाव, स्नेह प्रेम जहां कोई भी विचार व्यक्त करने के लिए सोचना नही पडता था ।
इस पुस्तक की घटनाक्रम यथार्थ पर अधारित है, जिसे कल्पना के माध्यम से खुबसूरत मोड दिया है लेखक ने, जैसे- 'राधा मोहन धीरज' और उनकी पत्नी 'मालती माला' का प्रसंग, राजेन्द्र से राजेन्द्र वया नरेंद्र , कथा कन्या कलावती की, नही भूलते सिनेमा वाले दिन, ददरी दीदार के बहाने, बलिया की बेमिसाल माटी । इस पुस्तक की हर लेख सारगर्भित है, पढ़ने के बाद मन में जिज्ञासा बढ़ती है बलिया को और जानने के लिए। कोई क्षेत्र अछूता नही है -- साहित्य, रंगमंच, धर्म, अखाड़ा, लेखक इतिहास के अध्यापक थे। अतीत के घटनाक्रम को तथ्यों के साथ बहुत बारीकी से प्रस्तुत किया है ।
जैसे- 'श्री मुरली मनोहर' का सनिचरी से मिलना, और सनिचरी के व्यक्तित्व की विशालता को दर्शाता ये लेख आत्म विभोर करता है- मुरली बाबु ने कहा कालेज बनवा रहा हूं इसके लिए बहुत धन की आवश्यकता है। सनिचरी का सहर्ष तैयार हो जाना पैसे देने के लिए, कहते हैं सनिचरी देवी को अपने परलोक गमन के वक्त का आभाष पहले से ही हो गया था। क्योकि व्रहमलीन होने के पूर्व संध्या पर ही उनहोने अपने लिए लकड़ी, घी, तथा कफन आदि मंगवाकर रखवा लिया था। लेखक के शब्दो में - मेरी दृष्टि मे देवी सनिचरी राख की ढेर से निकली चिनगारी नही कोयले की खान से निकली कोहिनूर थी ।
'श्रीकृष्ण बने बालक की बंदना' - समाज की सबसे बड़ी समस्या धर्म है
कलाकार को उसकी कला से नही धर्म से पहचाना जाता है। एक कलाकार साहित्यकार का हृदय कोमल और संवेदनशील होता है उनकी दृष्टि में किसी व्यक्ति की पहचान कला और भाव से होती है न की जाति और धर्म पर ---
समस्या पहले दिन होने वाली 'कृष्ण की बाल लीला' के पात्र के चयन की कसौटी पर खरा उतरा वह मुसलमान था - वह जमाना ऐसा था कि मुसलमान तो मुसलमान तथा कथित अछूत हिन्दू को भी राम,सीता,लक्ष्मण
या हनुमान आदि बनाया जाना एकदम अनुचित माना जाता था। उल्लेखनीय है कि फिरोज के उत्कृष्ट अभिनय के चलते, जितने मोहक कृष्ण लीला पहले दिन की हुई, बाद के दो दिनों की न हो सकी--
'बलिया में साहित्य सृजन का इतिहास'
बलिया कार्यक्रम इतिहास बहुत पुराना है। आज की युवा पीढ़ी अपने बलिया से उस हद तक परिचित नही है। शायद मैं भी नही , लेकिन इसे पढ़ने के बाद अपने को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं , कि बलिया ने इतने महान विभूतियों का जन्म और कर्म स्थल था -- यदि महर्षि बाल्मीकि का आश्रम बलिया में माना जाय तो यह कहना पड़ेगा कि संस्कृत का प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना बलिया क्षेत्र में हुई । 20वीं सदी के पांचवे दशक में साहित्यिक क्षेत्र में नये विमर्श उत्पन्न हुए 'स्वतंत्र भारत कैसा हो' मंथन होने लगा भोजपुरिया साहित्यकारों में नयी स्फूर्ति दिखाई पडने लगी ।
'बलिया बिसरत नाही' पर जितना लिखूं कम है इस पुस्तक ने बलिया के धरोहर को अपने अंक में समेटे हुए है--
हर वक्त फिजाओं में महसूस करोगे
आप सभी मुझे ,
हम दोस्ती और साहित्य की वो खुशबु है, जो महकेगे जमानें तक ।
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