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केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं"
केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं"

किसी भी कवि की सबसे बड़ी उपलब्धि यह होती है कि उसके शब्द केवल पढ़े न जाएं, बल्कि भीतर तक महसूस किए जाएं। केशव मोहन पाण्डे का काव्य संग्रह "मैं रोज सपने बुनता हूं" इसी कसौटी पर खरा उतरता है। उनकी कविताओं में गहन संवेदना, गूढ़ अभिव्यक्ति और सामाजिक यथार्थ का कलात्मक चित्रण निश्चय ही उल्लेखनीय उपलब्धि है।


कवि की कविताएं पाठक को केवल छूती नहीं बल्कि बांधकर रखती हैं। वे हमें अपने संसार में खींच ले जाती हैं, जहां भावनाएं, पीड़ा संघर्ष और सपनों की उजली रेखाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। इस संग्रह का शीर्षक अपने आप में सार्थक है।


हर कविता उस सपने की बुनावट है जो व्यक्तिगत से सामाजिक और अंततः मानवीय संवेदनाओं तक फैलती जाती है।


इस काव्य संग्रह की कविताओं की कुछ पंक्तियां आपसे साझा कर रही हूं -


रोज बुनता हूं सपने

अपने ही

किसी सुखद भविष्य के लिए नहीं,

बुहार कर

कंकड़ों को

देने के लिए

कुछ स्वच्छ, सीधा, सपाट राजपथ

अपनी जिम्मेदारियों को।


लड़की

आज भी

नहीं बोल पा रही है

ठीक से

वह

आज भी

धरती बनकर

बिछती जा रही है

पांवों के नीचे


सत्य को लकवा नहीं मारा

है दलित

दमित

समय के पाषाण खंड से

और उन्मत है असत्य

कर रहा अट्टाहास

मद में विजय के

घमंड से।


मेरी कविता

सप्तपदी में साथ

प्रियतमा का

मेरी कविता

धरती का धैर्ययुक्त

भाव क्षमा का


कवि अपने सपनों को केवल व्यक्तिगत आकांक्षाओं तक सीमित नहीं रखते। 'रोज बुनता हूं सपने' कविता में स्पष्ट करते हैं कि सपने किसी सुखद भविष्य के लिए मात्र नहीं हैं, बल्कि जिम्मेदारियों को निभाने और समाज के लिए एक समतल स्वच्छ मार्ग तैयार करने का प्रयास है।


'मैं रोज बुनता हूं सपने' केवल एक काव्य संग्रह नहीं बल्कि हमारे समय की नब्ज को टटोलने वाला साहित्यिक दस्तावेज है। इसमें स्त्री की पीड़ा, दलित का संघर्ष समाज की विडंबना, और भविष्य की उम्मीद सबकुछ है।

युवा कवि केशव मोहन पाण्डे की यह कृति हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक सशक्त हस्तक्षेप के रूप में दर्ज की जानी चाहिए।


कवि की भाषा सरल है लेकिन प्रभावशाली बिंब और प्रतीकों का प्रयोग किया है। वे सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं यही सादगी उनकी कविताओं को गहराई और असरदार बनाती है।


कवि केशव मोहन पाण्डे जी को शुभकामनाएं, अपने कर्मपथ पर निरंतर अग्रसर रहें।


इस उत्कृष्ट काव्य संग्रह को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें और पुस्तक खरीदें।

 
 
 
  • लेखक की तस्वीर: अर्चना श्रीवास्तव
    अर्चना श्रीवास्तव
  • 17 अग॰
  • 1 मिनट पठन
जीवन के प्रश्न पर कविता - contemplative artistic image showing person in thoughtful pose against purple twilight sky with philosophical question marks floating in atmosphere
जीवन के प्रश्न पर कविता - contemplative artistic image showing person in thoughtful pose against purple twilight sky with philosophical question marks floating in atmosphere

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या इसका उद्देश्य बतलाना है?

क्या व्यर्थ ही बीते जीवन,

या कुछ अमिट निशान छोड़ जाना है?

क्यों घिरी हूँ अवसाद में?

क्या यूँ ही खो जाना है?

यह बसंत है या भ्रम पतझड़ का?

क्या सच में मुरझाना है?

क्यों यह जीवन मिला मुझे,

क्या इसका अर्थ समझाना है?

संघर्षों का राह चुनूँ क्या,

या यूँ ही उलझी रहूँ अँधेरों में?

क्या ठहर जाना ही मंज़िल है,

या चलना है सपनों के सवेरों में?

दुनिया कहती है, "ठहरो ज़रा,

किस जल्दी में हो यूँ भागते?"

जो देखा था, कभी आँखों से जागते,

उन आँखों के अधूरे सपने

जो वक़्त की मार से बुझ गए,

क्या अब मैं उन्हें जी पाऊँ,

जो उनके होठों पर रुक गए?

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या रुक जाना ही मंज़िल है?

चाह नहीं इस जीवन को,

कोई इसकी तारीफ़ करे।

उन सपनों को पूरा करने में,

थोड़ा तो सहयोग करे।

क्यों जन्म हुआ मेरा?

क्या इसका उद्देश्य बतलाना है?

 
 
 
  • लेखक की तस्वीर: अर्चना श्रीवास्तव
    अर्चना श्रीवास्तव
  • 17 अग॰
  • 3 मिनट पठन
उमराव जान काव्य खंड समीक्षा - Lucknow haveli architecture with classical Indian cultural elements, musical instruments and Urdu calligraphy representing Prabhat Pandey's poetry collection
प्रभात पांडे जी की 'उमराव जान'

"उमराव जान" नाम सुनते ही चलचित्र उभर आता है, जिसमें रेखा जी की अभिनय की सराहना हुई थी। लेकिन मैं जिस "उमराव जान" के बारे में बताने जा रही हूँ, वो आदरणीय प्रभात पांडे जी की 'खण्ड काव्य' "उमराव जान" के बारे में है। कविताओं को पढ़ने के बाद महसूस होता है, जैसे कवि ने रूबरू होकर हर स्थिति को देखा और परखा है।


इस 'काव्य खण्ड' की प्रस्तुत कविताएँ समकालीन हिन्दी साहित्य में एक सशक्त एवं संवेदनशील स्वर जोड़ती हैं। ये रचनाएँ केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीवन, समाज और मानवीय भावनाओं की गहराइयों में उतरने की एक सच्ची और मार्मिक कोशिश है। "उमराव जान" पर आधारित और अन्य रचनाएँ भावबोध हैं जो पाठक को भीतर तक छू जाती हैं।


इस 'खण्ड काव्य' का कुछ अंश आप सबसे साझा कर रही हूँ।


गुमनामी की ज़िद


वो भी इस कदर

तमाम शहर लखौरियां तितर-बितर

बावुजूद सत्तर को रफू-लगातार

सतरंगी महल का फर्श तार-तार

लड़खड़ाते नग्में

खड़खड़ाते साज़

हवा में तैरती वही कशिश भरी आवाज़

लखनऊ ही तो

सदियों से जो

शब-ओ-रोज़ गूँजता है

गुंबदों में समाकर।


यह एक ऐतिहासिक पात्र का परिचय नहीं है, बल्कि स्त्री जीवन की त्रासदी, संघर्ष और आत्म-निर्माण की रचना है। "उमराव जान" की छवि एक 'तवायफ़' से आगे बढ़कर एक कलाकार, कवयित्री और संवेदनशील नारी की बन जाती है। कवि ने उसे एक पात्र नहीं बल्कि समय और समाज का प्रतिबिम्ब बना दिया है।


शहर की सड़कें


शहर का बाज़ार

चाहे-अनचाहे तमाम सरोकार

कि इज़्ज़त फिर भी ज़िल्लत ही ज़िल्लत

कि नेकनामी - फिर भी बदनामी ही बदनामी

कि सुर्ख़ रूई

कि ज़र्द रूई

हुई

हर जगह हुई इज़्ज़त-फ़रोशी

तिस पर भी बाज़ार की

खामोशी-खामोशी-खामोशी।


यह रचना आधुनिक युग की उस बेचैनी को स्वर देती है, जहाँ 'शब्द' मात्र रह जाते हैं और वास्तविक मनुष्य खो जाता है।


दिन के ढलते ही कोठों का निकल आना

कहीं खड़े रहना - कहीं बैठ जाना

हँसना ज़ोर-ज़ोर

मचाना बेवजह शोर

यह सब वहाँ

कंचनियाँ जहाँ

नागरियाँ जहाँ

चूनेवालियाँ भी जहाँ-जहाँ

डोमनियों की भी वैसी ही बातें

वैसी ही उनकी जिस्मानी हरकतें


अनहद नाद

अजीबो-गरीब उन्माद

जिसे कोटि-कोटि शंख

जैसे तितली के पंख

कतरा-कतरा फड़फड़ाना

जब उसका दुपट्टा हवा में लहराना।


कवि की रचनाएँ सृजन की प्रक्रिया और विचार के बंधनों पर गहराई से टिप्पणी करती हैं। कवि ने यहाँ कल्पना, विचार और स्वतंत्रता के संबंधों को दार्शनिक शैली में प्रस्तुत किया है।


याद है न उमराव जान

परीख़ाना कहलाता था जो मकान

उसके दर तक

चाहे-अनचाहे

कितनी ही राहें

यासमीन, सुलेमान, सुल्तान परी

दिलदार परी

सरदार परी


सृजन-धर्म तब तक

जब तक सृजन

सृजन हो।

सृजन वह तब कहाँ

जब अधिकार दमन हो

नमन तब नमन नहीं

तब नमन ही है हार

मुनासिब है ऐसे में इस सृजन का संहार।


कवि की रचनाओं में समाज के बदलते चेहरों में लड़कियों की स्थिति और संघर्ष को बहुत प्रभावशाली ढंग से उकेरा है। यह रचना केवल एक अनुभव नहीं बल्कि सामाजिक विडंबनाओं की गूंज है।


रचनाओं की भाषा सजीव, बिंबात्मक और ध्वनि-प्रभाव पाठक को बाँधकर रखते हैं। हर कविता में एक अलग भावभूमि है - विछोह और बेचैनी, दार्शनिक वैराग्य, नारी संवेदना और आंतरिक कोलाहल। यह सब कवि की कल्पनाशीलता और चिंतनशीलता को दर्शाते हैं।


"उमराव जान" 'काव्य खण्ड' की सबसे बड़ी शक्ति है 'समकालीनता'। आज जब समाज में स्त्री-विमर्श, सामाजिक असमानता, विचारों की स्वतंत्रता और आंतरिक संघर्षों की चर्चा हो रही है, ऐसे में "उमराव जान" की कविताएँ एक सशक्त हस्तक्षेप करती हैं।


आप सभी से निवेदन है, अगर आप कविता को महसूस करना जानते हैं तो इस 'काव्य खण्ड' को ज़रूर पढ़ें।


मैं आदरणीय प्रभात पांडे जी को हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इतनी भावपूर्ण कृति को पढ़ने का अवसर दिया और शुभकामनाएँ देती हूँ कि आने वाले समय में भी हमें उनकी और उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने का अवसर मिलेगा।


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